रेल संगीत-परिचय
पंकज खन्ना
9424810575
रेल संगीत-परिचय
बचपन से ही ग्रामोफोन, घड़ी , साइकिल, टाइप राइटर, और रेल/स्टीम इंजन से कुछ ज्यादा ही प्यार रहा है। ये सभी अविष्कार सचमुच अदभुत हैं और मानव मस्तिष्क के विकास का बेहतरीन उदाहरण हैं।
रेल की आवाज़ तो आज भी इलेक्ट्रिकल इंजन आने के बाद भी संगीतमय ही लगती है। क्या रेल देखने के बाद आपका दिल भी कुछ ऐसे गाता है: रेल में जिया मोरा सन् नन् होए रे!? आपको भी रेल यात्रा के दौरान धन्नो की आंखों में रात का सुरमा दिखाई देता है?
कहीं आपको भी जिंदगी की रफ्तार तूफान मेल के समान तो दिखाई नहीं देती है!? शायद आप भी मानते हैं : कस्तो मज़ा है रेलई मा!?
रेल में आप भी गाना चाहते हैं: है अपना दिल तो आवारा? रेल के दरवाज़े पर खड़े होकर बाहर झांककर आप भी गुनगुनाते हैं: आई बहार आज आई बहार!?
जब जिंदगी की रफ्तार आपसे कुछ ज्यादा ही तेज होती है, आप भी मन ही मन में गाते हैं: चले पवन की चाल, जग में चले पवन की चाल? अच्छे से जानते हैं ना कि जीवन यात्रा हो या रेल यात्रा, आपका और हमारा बस पल दो पल का साथ है?
अगर ऊपर लिखे किसी भी प्रश्न का उत्तर हां है तो आप बिल्कुल ठीक पटरी पर हैं! आगे-आगे बढ़ते चलिए, पढ़ते चलिए। नहीं जमे तो धीरे से यहीं से कटने का आसान विकल्प भी है:)
पैंतरा बदलते हैं और अब इस छोटी सी जीवन/संगीत यात्रा को भी पटरी पर ले आते हैं। रेल की पटरी पर। पर रहेंगे रेल में, पटरी पर नहीं। देश की पटरियां बहुत बदनाम हैं।
तवा संगीत की एक धारा, ईक्षक इंदौरी की दूसरी धारा और रेल की तीसरी अद्भुत धारा से मिलकर बनी है ये त्रिवेणी: रेल संगीत। इसमें रेल संगीत और रेल संगत (रेल यात्राओं) के बारे में लिखा जा रहा है। थोड़ा सा रेल के विज्ञान और इतिहास पर भी बीच-बीच में लिखा जाएगा।
रेल को याद करते ही बचपन की रेल यात्राएं याद आ जाती है! छोटी लाइन (Meter Gauge या Narrow Gauge) पर कोयले का धुआं उड़ाती, सीटी बजाती, जले कोयले और पुराने लोहे-लक्कड़ की गंध बिखेरती, हिचकोले लेती, संगीतमय छुक-छुक चलती रेल गाड़ी को कौन भूल सकता है भला?
रेल के लोहे के काले इंजिन के लाल डिब्बों में लोहे की संरचना पर पीली-पीली दरार/Gap वाली मजबूत लकड़ियों की बेंच पर बेखौफ उछलकूद करना । फिर माता पिता की गोदी में धम्म से बैठकर खिड़की से सटकर बाहर पेड़ों, खेतों और पहाड़ों को रह-रह कर निहारना और निहारते ही रहना।
बीच के स्टेशन पर उतरकर पगड़ी-धोती-कुर्ता धारी खोमचे वालों से कुछ-कुछ लेना और बिना हाथ धोए सब कुछ भकोस जाना। स्टेशन पर लगी अमावस के अमावस साफ होने वाली पानी की टंकियों से गंदे हाथ की ओट लगाकर जल्दी-जल्दी ढेर सारा पानी पी जाना, बिना बीमार हुए। फिर लपककर चलती ट्रेन के डिब्बों को भागकर पकड़ना और मां बाप के हाथों की लकीरों को गाल से मिटाने की असफल कोशिश करना।
अकारण ही ट्रेन के डिब्बों में रास्ते में चहुंओर पड़ी हुई कपड़े की बंधी गठरियों, होल्डॉल* (Holdall) और लोहे के संदूकों के ऊपर से चलना, घूमना और अनजान लोगों को देखकर खी-खी-खी करना, डांट खाना, और भाग जाना। होल्डाल, नक्काशी वाल संदूक, चमड़े के सूटकेस, पीतल के बर्तन, खाद्य सामग्रियों से भरी केन की टोकरियां, खिड़कियों से लटकी हुई कैनवास के कपड़े की बनी छागल (पीने के पाने के लिए), थूकदान, पानदान, तोते और पिंजरे के साथ पूरे खानदान आसानी से दिखाई पड़ते थे। बस प्लास्टिक कहीं भी दिखाई नहीं देता था। तब मुस्कराहटों में भी प्लास्टिक कम ही पाया जाता था।
(ऊपर-नीचे और दाएं-बाएं से हवा देने वाले टॉयलेट में खिल खिलाकर हंसते हुए हिल-हिलकर फारिग होना सभी बच्चों को बहुत पसंद आता था। हमें भी। कुछ ज्यादा ही! स्कूल के दिनों में रेल यात्रा पर निबंध लिखते हुए इसी संबंध में कुछ लिख दिया था। बहुत मार पड़ी थी! क्लास के हर बच्चे का रेल यात्रा का निबंध माटसाब के ही रटे-रटाए शब्दों में होना अनिवार्य था, यात्रा कहीं भी की हो! अब कौनसे माटसाब का डर! हम तो लिखेंगे!)
खिड़की से बाहर हाथ निकालकर ग्रामवासियों को टाटा बाय-बाय करना। चाय वालों की चाय-चाय-चाय की नकल करना। स्टीम इंजन के धुएं के कणों से मुंह काला करवा कर मस्त ट्रेन में डोलते रहना। उस जमाने के साधारण बच्चे सिर्फ ऐसे ही मुंह काला करवाया करते थे!
बीच के स्टेशनों के प्लेटफार्म पर खड़े होकर दैत्याकार स्टीम इंजन के सांस लेने और छोड़ने को सुनना और देखना! स्टीम इंजन के चेहरे में सितारे और अन्य डिजाइन को देखना। बॉयलर, भट्टी, पिस्टन, क्रैंक, स्टफिंग बॉक्स और कनेक्टिंग रॉड को टकटकी लगाकर बगैर समझे देखना और आश्चर्य करना!
सफर के दौरान रेलवे के किसी बड़े वाले जानकार यात्री द्वारा बड़ी-बड़ी ढींगे हांकना और निरर्थक जानकारी देना, जैसे: कौनसे स्टेशन पर इंजन में पानी डाला जाएगा, कौन से स्टेशन के आने के पहले इंजन ड्राइवर 10/20 किलो कोयला रिश्तेदार के लिए कहां फेंकेगा, कहां पर 36.73 मीटर का बोगदा आएगा, कहां शंटिंग होगी, कहां से और कैसे स्टीम इंजन घुमाया जाएगा। और फिर दो स्टेशनों के बीच में आने वाले किसी गांव के सरपंच का नाम और उनका इनसे रिश्ता आदि बतलाना। हमें तो इंजन पर लिखे शब्द YP, YG या WDM आदि अच्छे लगते थे पर मतलब नहीं मालूम था। लोगों से पूछते रहते थे। जवाब नहीं मिलता था। मौका देखकर उस जालिम जानकार से भी पूछ लिया। उसने डपट दिया : ये अंग्रेजों के नाम हैं। तुझे क्या करना है नाम से?
(अब तसल्ली से आने वाले हफ्तों में इन सब प्रकार के बहुत से रेलवे वाले शब्दों का मतलब रेल गीतों के साथ समझेंगे।)
वो देशी, देहाती तथाकथित अनपढ़, गंवार लोग जो ऐसी यात्राओं में गांधी, नेहरू,इंदिरा गांधी, बाबू जगजीवन राम, अटल बिहारी वाजपेई, मधोक, लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि के बारे में गहन और शालीन चर्चा बगैर कीचड़ उछाले करते थे; बहुत याद आते हैं। छुक-छुक गाड़ियों की धड़क-धड़क के बीच बड़े छोरा-छोरियां का एक दूसरे को रुक-रुक कर कनखियों से देखना और बिना कुछ बोले, होले से मुस्कुराते रहना भी अच्छे से याद है। इस बात पर तो भर-भर कर लिखा जा सकता है। कौन लिखे! हम से तो ज्यादा लिखा नहीं जाता भिया!
पूरे परिवार और सह यात्रियों के साथ मिलजुल कर लकड़ी की बेंच नुमा सीटों पर पेपर बिछाकर हिलते-डुलते हुए आलू-पुड़ी, अचार-पराठे का आनंद लेना भी बहुत याद आता है।
ट्रेन के उस जमाने के फेरीवाले , मांगनेवाले भी बिल्कुल अलग ही हुआ करते थे। उनकी वेशभूषा और बोलचाल अलग होती थी। रेल के किसी सूरदास जी द्वारा गाया दर्शन दो घनश्याम भी सबसे पहले यहीं सुना था। स्लमडॉग मिलिनेयर तो बहुत बाद में आई थी।
शाम ढले, टिमटिमाते मद्धम रोशनी के बल्बों की अपर्याप्त रोशनी में नहाए छोटे-छोटे रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म छोड़ती हुई जाती हमारी ट्रेन। और फिर रात गहराए जाने के साथ, खाने के बाद, कुछ अड़ियल सहयात्रियों द्वारा बच्चों के प्रति बगैर रियायत के फ्रंटियर मेल के फर्स्ट क्लास की किसी अंग्रेजी बोलने वाली विलायती भूतनी, और रेलवे के किसी स्वर्गीय लालटेन धारी मुच्छड़ चौकीदार के बार-बार महू के प्लेटफार्म पर दिखाई देने के 'सच्चे' किस्से कसमें खा-खा कर सुनाना।
ट्रेन में हल्की पीली रोशनी, बाहर घुप्प अंधेरा, हवा की सांय सांय, कोयले की मस्त गदराई महक। छोटी लाइन के स्टीम इंजन और पटरी का संगीतमय सतत मिलन: धक-धक धक-धक, छक-छक, छक-छक! छुक-छुक, छुक-छुक!! धड़क-धड़क, धड़क-धड़क, धड़क-धड़क, धड़क-धड़क!!! बीच-बीच में 'सन्नाटे को चीरती' 🚂 के सीटी। इंजन की धड़क-धड़क और दिल की धड़क-धड़क की जानलेवा जुगलबंदी! कहने का मतलब ये कि क्या रिस्क रे बाबा, क्या रिस्क रे बाबा!
आंख बंद करके रेल और प्लेटफॉर्म के भूतिया किस्से सुनते-सुनते किसी तरह सो जाना। घोर अंधेरी रात में किसी रेलवे स्टेशन पर अचानक चर्रचर करके ट्रेन का रुकना और नींद खुल जाना। खिड़की के बाहर झांकने पर रेलवे की बाबा आदम के जमाने की लालटेन लहराए दढ़ीयल, मुच्छड़ चौकीदार का दिखाई देना। मतलब, रात की कहानी के भूत को ठीक सामने पाना! जोर से चीख मारकर डर जाना और फिर अचानक जागे पिता से पिट के मा से लिपट के सो जाना।
दो आयामों ( Two Dimensions) में ट्रेन तो दिख जाएगी, पटरी भी दिख जाएगी , लेकिन यू ट्यूब पर ये सब लोग और किस्से बिल्कुल दिखाई नहीं देंगे। वो 3D वाला संपूर्ण अनुभव कहां से आएगा? उसे ऐसे लिखकर सिर्फ याद ही किया जा सकता है।
रेल के इस पुराण को और देश की पुरातन संस्कृति को कुछ-कुछ समझने के लिए एक अच्छा तरीका है: रेल यात्रा करें। पहले रेल यात्राएं आरामदायक कम और आनंददायक अधिक होती थीं। अब रेल यात्राएं आराम दायक अधिक और आनंद दायक कम हैं। नहीं मामा से काणा मामा अच्छा। रेल यात्राएं आज भी कर सकते हैं। या फिर पुराने रेल गीत देखें और सुनें! तभी थोड़ी सी झाड़ी लगेगी मतलब थोड़ा सा समझ आएगा।
इस ब्लॉग का उद्देश्य भी यही है: रेल संगीत और रेल-संगत का स्मरण, विवरण, लेखन आदि।
रेल पर एक से बडकर एक विभिन्न प्रकार के हिंदी गाने बनें हैं पिछले 80-90 सालों में। इन गानों में आपको इतिहास, प्रेम गाथाएं, साहित्य, प्रेरणा, दर्शन, सुंदर छायांकन, किस्सागोई, मौज-मस्ती, हास-परिहास, हल्का-फुल्का मनोरंजन सभी कुछ मिलेगा। कुछ गानों में फुहड़ता भी झलकती दिखेगी। उसे भी झेलेंगे।
इस ब्लॉग में हम सिर्फ उन गानों की ही बातें करेंगे जिनमें रेल के दृश्य हों या रेल का उल्लेख हो। सन 1941 से आजतक के 75 गानों का चयन किया है इस ब्लॉग के लिए। आप जिस भी गाने के बारे में सोच रहे हैं, वो आपको मिलेगा! बस थोड़ा सब्र करना होगा। 75 सप्ताहांत अभी से बुक किए दे रहे हैं। प्रति सप्ताहांत एक गीत। संगीत और रेल के मिलन के लिए।
और उसके बाद बचपन से लेकर अभी तक की गई कुछ बेहतरीन स्टीम इंजन की छोटी लाइन की यात्राओं ( लगभग 15) को याद किया जाएगा, द्वितीय चरण में: रेल संगत में।
पंकज खन्ना
9424810575
मेरे कुछ अन्य ब्लॉग:
हिन्दी में:
तवा संगीत : ग्रामोफोन का संगीत और कुछ किस्सागोई।
ईक्षक इंदौरी: इंदौर के पर्यटक स्थल। (लेखन जारी है।)
अंग्रेजी में:
Love Thy Numbers : गणित में रुचि रखने वालों के लिए।
Epeolatry: अंग्रेजी भाषा में रुचि रखने वालों के लिए।
CAT-a-LOG: CAT-IIM कोचिंग के बारे में सब कुछ। बगैर कोचिंग के भी अच्छे परिणाम आ सकते हैं ये जानने के लिए छात्र और पालक सभी इसे अवश्य पढ़ें।
Corruption in Oil Companies: HPCL के बारे में जहां 1984 से 2007 तक काम किया।
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*होल्डाल : ये 'होल डाल' रेल यात्राओं का अभिन्न अंग हुआ करते थे। अब ये भी स्टीम इंजन के साथ-साथ लगभग लुप्तप्राय हो गए हैं। उस जमाने में रेलवे तो गादी-तकिए-चादर देती नहीं थी। जनता इसे ही लेकर चलती थी। इसे बिस्तरबंद भी कहा करते थे। ये लगभग हर कुली के सर पर पड़ा हुआ दिखाई देता था। सामान्यतः खाकी और हरे रंग के कैनवास के कपड़े में बनाया जाता था। साइज होता था लगभग 6 फीट गुना 3 फीट। इसे सभी कहते थे होल डाल पर असली नाम तो Holdall ही था। इस होल्डाल में पतला गद्दा, चादर, तकिया, कंबल, कपड़े, कपड़े की छागल (आज के जमाने की प्लास्टिक बॉटल का समकक्ष), किताबें, बर्तन, तोलिए, छाता, गहने , चप्पल, सैंडल, जूते, खाने का सामान और वो सब जो संदूकों में नहीं आ पाता था, ठूंस दिया जाता था। जिन बच्चों, नौजवानों ने इसे पहले नहीं देखा हो, नीचे देख लें।
जो गरीब लोग होल्डॉल भी खरीद नहीं सकते थे वो कपड़े की गठरियाँ लेकर चलते थे। ये गठरी गरीब लोग आज भी लेकर चलते हैं। तब ट्रेनों में भिखारी के सी डे का सन 1935 का बहुत पुराना गाया गाना तेरी गठरी में लागा चोर गाकर यात्रियों को सावधान करते थे। गठरियाँ तो बच गई पर होल्डॉल जाते रहे।
इस होल डाल को ट्रेन की बर्थ पर या नीचे दो सीटों के बीच में खोल दिया जाता था। हमारे बचपन की विशेष याद है बंद होल्डाल पर उछलना और खुले होल्डाल पर पसरना। सोचता हूं फिर कभी Holdall लेकर ट्रेन यात्रा करूं। है क्या किसी के पास ऐसा वाला पुराना वाला होल डाल?
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