(1) आई बहार आज आई बहार (1941)


                       आई बहार आज आई बहार 

संभवतः हिंदी फिल्मों में रेल पर फिल्माया गया पहला गाना ये  है :आई बहार आज आई बहार! फिल्म का नाम है डॉक्टर। सन 1941 में रिलीज हुई थी। गीतकार हैं आरजू लखनवी। अभिनेता, गायक और संगीतकार हैं पंकज मलिक।

पहले गाने के बोल पढ़ लेते हैं और एक बार गाना देख-सुन भी लें इस लिंक से।

आई बहार आज आई बहार-2
गुलशन में, गुलशन में लिये फूलों के हार
आई बहार आज आई बहार

मेरे दिल में भी ताज़ा उमंगें बढ़ीं -२
आरजुएं बढ़ी और कैसी बढ़ीं
लिये फूलों के हार, आई बहार आज आई बहार-2

मस्ती से डाली जो यूँ झूम उठीं
इस मस्त से इनकी आँखें लड़ीं ) -२
आज हर फूल परआज हर फूल पर है नई ताज़गी
रंग चोखा अनोखा है ख़ुश्बू नई
अन्दलीबें पुकारीं ज्यूँ ही ये सुना
लिये फूलों के हारआई बहार आज आई बहार

आज फूलों का बुलबुल से बियाह होने को है -२
आज थालों में सन्दल आने को है
आज प्यालों में उबटन आने को है -२
आवो तराने छेड़ें नये, आओ मिल-जुल के गाने गायें नये
आओ शादी रचायें शोर हम सब नये
है ये शादी नई, आओ दुनिया बदलने का दिन आ गया
लिये फूलों के हार, आई बहार आज आई बहार-2

(इस गीत के कुछ कठिन शब्दों  के  अर्थ: गुलशन: बगीचा, आरजुएं: इच्छाएं, अंदलीब: बुलबुल पक्षी, बियाह: विवाह,  संदल: चंदन, उबटन: शरीर की मालिश के लिए एक तरह का लेप)

गाने की  शुरुआत कुछ ऐसे होती है। किसन-कन्हैया की मुद्रा में एक बालक धोती कुर्ते में एक पेड़ पर विराजमान है और मोहक धुन में चैन की बांसुरी बजा रहा है। दूर से पंकज मलिक की मधुर आवाज़ उभरती है: आई बहार आज आई बहार। और इसी के साथ आती है स्टीम इंजन की मधुर ध्वनि! बालक बांसुरी वादन छोड़ रेल की तरफ देखने लगता है।

अब कैमरा रेल की तरफ हो जाता है। सबसे पहले दिखता है  चलता हुआ स्टीम इंजन (KF8 of  KFR )*, स्टीम इंजन के घूमते हुए बड़े से चमकीले कनेक्टिंग रॉड और पहिए! घूमता तवा हो या स्टीम इंजन की  घूमती कनेक्टिंग रॉड; संगीत प्रेमियों  और रेल प्रेमियों के  दिल में ये देखने भर से यूं ही बहार आ जाती है!

पहले ही डिब्बे के दरवाजे पर पंकज मलिक  रेलिंग पर एक हाथ टिकाकर और दूसरा हाथ रेल से बाहर लहराकर गाते हुए नज़र आते हैं। पेंट, शर्ट और कोट पहन रखा है इन्होंने। कुछ-कुछ आज के कॉरपोरेट कर्मचारियों के समान दिखाई पड़ रहे हैं। डिब्बे की लकड़ी की सरियाविहीन (Barless) खुली खिड़कियां  हैं। उनके दो चमचे नुमा दोस्त भी हैं जो भीतर जमा हैं।

रेल आगे बढ़ती है और गाना भी। पटरी, पेड़ ,खेत, गांव, जंगल, हरियाली। श्वेत और श्याम रंग में भी हरियाली दिखाई पड़ती है। बस ध्यान लगाकर देखना पड़ता है! डॉक्टर साब यानी पंकज मलिक यानी  फिल्म के हीरो मस्ता रहे हैं, गा रहे हैं। गाए भी क्यों नहीं!? डॉक्टरी की कठिन पढ़ाई पूरी करके रईस जमींदार पिता के घर वापस लौट रहे हैं!

उधर बहार आई और  इधर इनके दिल में उमंगे बढ़ीं। और कैसी बढ़ीं! आप तो देख ही रहे हैं! 

भाई गा रहे हैं : मस्ती से डाली जो यूँ झूम उठीं। 
डिब्बे में पीछे बैठे भोले-भोले चमचे कारण बताते हैं: 'इस मस्त से इनकी आँखें लड़ीं'!

फिर इन्होंने गाया: अन्दलीबें पुकारीं ....!  हालांकि सत्य ये है  कि ये अपनी  ही अंदलीब (बुलबुल)  की तलाश में हैं!

अब एक बटोहीया (बैलगाड़ी चालक) ट्रेन से होड़ लगाते दिखता है। शायद उसने भी पंकज मलिक का गाना सुन लिया था। शायद थोड़ा और सुनना चाहता था। बहुत जोर भगाता है लेकिन जल्दी ही बैलगाड़ी आंखों से ओझल हो जाती है। (घोड़ों और कारों के साथ ट्रेन की जुगलबंदी तो आपने देखी ही है। आपको याद भी कराएंगे अच्छे से। लेकिन बैलगाड़ी और रेल? शायद बस यहीं है!)

इसके बाद कुछ रोचक शब्द आते हैं: 'आज फूलों का बुलबुल से बियाह होने को है'...!  ट्रेन आगे गांव जंगल से गुजरती है।तभी पांच शर्मीली सीधी साधी महिलाएं शायद थालियों में संदल और प्यालों में उबटन लिए धीरे-धीरे प्रकट होती हैं और ये तीन तिलंगे  खिड़की और दरवाजे पर मोर्चा संभाल लेते हैं। ताड़ना छोड़ो, सीधे फ्लर्ट करना शुरू कर देते हैं! ऐसे छिछोरे लोगों वाले काम!

पंकज मलिक हाथों से इशारे करके पास बुलाते हैं और गाते हैं: आओ शादी रचाएं...! बेचारी महिलाएं सकुचा शर्मा के पल्लू करके रिवर्स गियर मार देती हैं। बता रहा हूं, पंकज नाम के लोग ऐसे ही होते हैं। बुढा जाते है पर हरकतों से बाज़ नहीं आते!

फिर आखिरकार एक  स्टेशन पर ट्रेन धीरे-धीरे रुकती है। ट्रेन के बाकी भरे हुए डब्बे भी दिखाई देने लगते हैं। प्लेटफार्म पर भी काफी यात्री हाथ हिला हिलाकर आने वालों का अभिवादन कर रहे हैं। सभी ग्रामीण परिवेश में हैं। एक अंग्रजों के ज़माने का केरोसिन से जलने वाला सुंदर लेकिन थोड़ा सा टेढ़ा खंभा ( Lamp Post) और उस पर टिकी दो पुरानी साइकिलें  भी नज़र आ रही हैं। 

एक गाने में इससे ज्यादा और क्या चाहिए?  

पेशे से मास्टर हूं ढंग से समझाना मेरा कर्तव्य है। वही कोशिश की है। अब एक बार गाना ध्यान से फिर सुनें। और फिर अच्छे से समझ आ जाएगा। दिन भर गाएंगे मन ही मन में! 

फिर भी कुछ डाउट हो तो पूछ लें कभी भी। नंबर इसीलिए दिया है। चाहें तो घर भी आ सकते हैं। तवे से उतारकर यही गाना  साथ में सुनेंगे। सच में बहार आ जाएगी!


पंकज खन्ना
9424810575

मेरे कुछ अन्य ब्लॉग:

हिन्दी में:
तवा संगीत : ग्रामोफोन का संगीत और कुछ किस्सागोई।
ईक्षक इंदौरी: इंदौर के पर्यटक स्थल। (लेखन जारी है।)

अंग्रेजी में:
Love Thy Numbers : गणित में रुचि रखने वालों के लिए।
Epeolatry: अंग्रेजी भाषा में रुचि रखने वालों के लिए।
CAT-a-LOG: CAT-IIM कोचिंग।छात्र और पालक सभी पढ़ें।
Corruption in Oil Companies: HPCL के बारे में जहां 1984 से 2007 तक काम किया।


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* रेल/इतिहास प्रेमियों के लिए स्टीम इंजन KF8  और  KFR की  बहुत थोड़ी सी जानकारी साझा कर रहा हूं। KFR मतलब कालीघाट-फालटा रेलवे। KF8 इंजिन का नंबर है। इस प्राइवेट रेलवे कंपनी की स्थापना सन 1917 में हुई थी। इस कंपनी की कुल 43 km की छोटी लाइन (Narrow Gauge 2"6" वाली ) थी। KFR की ट्रेन कलकत्ता के कालीघाट से आज के बेहाला  होकर फालटा  तक चलती थी। अब ये नाम या बीच में आने वाले अधिकतर स्टेशनों के नाम  लगभग बदल  चुके हैं या लुप्त हो चुके हैं! इस ट्रेन के तीन प्राचीन फोटो नीचे लगाए हैं।





भारत की आज़ादी के बाद KFR बढ़ते नुकसान के कारण ज्यादा नहीं चल पाई। सन 1957 में कंपनी बंद हो गई। उसके बाद भारत/बंगाल सरकार ने KFR की रेल लाइन को हटा कर पुनः प्राप्त जमीन के एक बड़े हिस्से पर एक चौड़ी सड़क का निर्माण किया जिसे नाम दिया गया: जेम्स लॉन्ग सारणी (James Long Sarani)।

आप कभी कलकत्ता की जेम्स लॉन्ग सारणी से गुजरें तो जरूर देखें और सोचें कभी यहां से होकर एक रेल गुजरती थी जिसका अब नामो निशान तक नहीं मिलता है। ना ही दिखाई देते हैं: पटरी, पेड़ ,खेत, गांव, जंगल और हरियाली। बहार आती है तो बहार जाती भी है!



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