(27) देख तेरे संसार की हालत (1954)
आज का रेल गीत : संभवत: सबसे ज्यादा गंभीर रेल गीत है। इस गाने के चित्रण में भारत की स्वतंत्रता की खुशी न होकर देश के विखंडन की विकरालता और लाखों लोगों की त्रासदी दिखाई गई है कि कैसे किसी तरह जिंदा बचे, अधमरे देशवासी अपने ही अखंड देश से विस्थापित होकर खचाखच भरी ट्रेनों में पाकिस्तान से भारत लौट रहे हैं।
इस गाने को सुनना, देखना और फिर इसके बारे में लिखना बहुत कष्टदायक है। लिखना तो पड़ेगा। गीत और गायन में कवि प्रदीप की सच्चाई जो है। कमाल का संगीत दिया है सी रामचंद्र ने। फिल्म का नाम है : नास्तिक (1954)। आई एस जौहर द्वारा लिखित और निर्देशित।
गाने के बोल:
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान,
सूरज ना बदला ,चाँद ना बदला,ना बदला रे आसमान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
आया समय बड़ा बेढंगा,आज आदमी बना लफंगा,
कहीं पे झगड़ा,कहीं पे दंगा,नाच रहा नर होकर नंगा,
छल और कपट के हांथों अपना बेच रहा ईमान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
राम के भक्त,रहीम के बन्दे,रचते आज फरेब के फंदे,
कितने ये मक्कार ये अंधे,देख लिए इनके भी धंधे,
इन्हीं की काली करतूतों से हुआ ये मुल्क मशान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
जो हम आपस में ना झगड़ते,बने हुए क्यूँ खेल बिगड़ते,
काहे लाखो घर ये उजड़ते,क्यूँ ये बच्चे माँ से बिछड़ते,
फूट-फूट कर क्यों रोते प्यारे बापू के प्राण,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान,
सूरज ना बदला ,चाँद ना बदला,ना बदला रे आसमान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
आया समय बड़ा बेढंगा,आज आदमी बना लफंगा,
कहीं पे झगड़ा,कहीं पे दंगा,नाच रहा नर होकर नंगा,
छल और कपट के हांथों अपना बेच रहा ईमान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
राम के भक्त,रहीम के बन्दे,रचते आज फरेब के फंदे,
कितने ये मक्कार ये अंधे,देख लिए इनके भी धंधे,
इन्हीं की काली करतूतों से हुआ ये मुल्क मशान,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
जो हम आपस में ना झगड़ते,बने हुए क्यूँ खेल बिगड़ते,
काहे लाखो घर ये उजड़ते,क्यूँ ये बच्चे माँ से बिछड़ते,
फूट-फूट कर क्यों रोते प्यारे बापू के प्राण,
कितना बदल गया इंसान..कितना बदल गया इंसान ||
गाना शुरू होता है प्लेटफार्म पर उपस्थित भारी भीड़ के शॉट से। फिर एकदम ठसाठस भरी हुई ट्रेन चलती हुई दिखाई जाती है। ये विभाजन के समय की ट्रेनों का असली फुटेज है। जरा ध्यान से जबरदस्त भीड़ को देखें और उन विस्थापित लोगों की मनःस्थिति समझने का प्रयत्न करें जो फिर कभी अपने घर न लौट पाएंगे।
फिल्म के हीरो हैं अजीत। फिल्म में इनके माता पिता मार डाले जाते हैं। ये अपनी छोटी बहन और भाई के साथ गुमसुम, सहमे हुए और उदास ट्रेन की बर्थ पर बैठे दिखाई देते हैं और पार्श्व में गाना बजता रहता है: देख तेरे संसार की हालत...
रेल कौनसी है और इंजिन कौनसा है, न तो दिखाई देता है और न ही जानने की कोशिश की जा सकती है। तथ्य सिर्फ यही है कि देशवासियों की इच्छा के विरुद्ध विभाजन हुआ और लाखों लोग मारे गए। कवि प्रदीप के शब्दों में मुल्क हुआ मसान (श्मशान)। कितना बदल गया इंसान कहें या कहें: कितना गिर गया इंसान।
उस समय रेलगाड़ियों की क्या हालत थी, समझने के लिए नीचे दिए गए चित्र काफी हैं।
(क्या करते बेचारे! भाप के इंजिन बना दिए बाप के इंजिन।)
(ऐसी 800 रैलें उस समय दोनों देशों के बीच प्रतिदिन चलीं।)
(होल्डाल लिए सभी जातियों के देशवासी जिंदगी ढूंढते हुए। )
लाखों अन्य पंजाबियों के समान हमारे पूर्वजों ने भी विभाजन की पीड़ा झेली है। हमारे दादा स्वर्गीय चिन्योटीराम खन्ना अविभाजित भारत के पंजाब के चिन्योट नाम के शहर (फैसलाबाद से 38km दूर) में ज्वेलरी की दुकान करते थे।
अगस्त 1947 के कुछ दिनों पहले ही दंगे होने शुरू हो गए थे।
एक दिन दादा की दुकान अचानक लूट ली गई। लूटने वाले दुकान के ही कर्मचारी और आसपास के लोग थे। अति संक्षेप में लिखें तो बस यह कि दादा हमारे पिता (19 वर्ष, कॉलेज के विद्यार्थी), चाचा (16 वर्ष) और कुछ बच गए रिश्तेदारों के साथ किसी तरह पैसा लुटाकर, जान बचाकर अपनी ही मातृभूमि छोड़कर, अपनों की मौत का मातम मनाए बिना, दिल्ली के शरणार्थी शिविर होते हुए इंदौर पहुंच गए। फिर कभी दुकान न खोल पाए। शुरू के दो सालों में मजबूरी में फर्जी ज्योतिषी बनकर और साथ में सट्टा खा कर बड़ा परिवार चलाए जब तक हमारे पिता कमाऊ नहीं हो गए। सबसे दुखद तथ्य तो ये है कि वे स्वयं के ही देश में ताउम्र शरणार्थी कहलाए!
हम बच्चे विभाजन की कहानियों को सुनकर बड़े हुए। मजबूत और बहादुर बड़े बूढ़ों को इस गाने पर और विभाजन की बातों पर दशकों तक फूट-फूट कर रोते देखा है। तब समझ नहीं आता था। अब समझ में आता है उन लोगों का दर्द जिन्होंने मातृ-भूमि छोड़कर ऐसी विषम रेल यात्राएँ करने के बाद शरणार्थी शिविरों से गुजरकर सब कुछ नए सिरे से शुरू करना पड़ा।
वक्त-वक्त की बात है। हमारे दादा रेल यात्राओं के नाम से खौफ खाते थे और रेल यात्राएं टालना चाहते थे। और आज हम स्वतंत्रता से रेल संगीत पर लिखे जा रहे हैं। सब उनका ही आशीर्वाद है कि आज अपने देश में सुरक्षित हैं, पेट भरा है और जेब भी खाली नहीं रही। तो ये सब लिखने का शौक पाल सकते हैं।
धर्म और राजनीति के कारण हुई इस त्रासदी का रचयिता मानव मस्तिष्क ही है। और मानव जात को बचा कर ले जाने वाली रेलों के निर्माण और विकास के पीछे भी मानव मस्तिष्क ही है। सिर्फ मानव निर्मित धर्म और राजनीति ही नहीं और भी बहुत मानव निर्मित चीजें हैं दुनिया में जिन्हें देखा, सुना और सराहा जा सकता है।
अगर हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी का पेट भी भरा रहे और स्वयं के देश में कहीं भी रहने की स्वतंत्रता बनी रहे तो समझना होगा और निश्चित करना होगा कि ऐसी विभाजन समान स्थिति पुनः उत्पन्न न हो।
ये गाना और ये रेलें हमें 'इंसान' बनने की प्रेरणा देती हैं। पर इंसान इतनी आसानी से प्रेरणा कहां लेता है!?
पंकज खन्ना
9424810575
मेरे कुछ अन्य ब्लॉग:
हिन्दी में:
तवा संगीत : ग्रामोफोन का संगीत और कुछ किस्सागोई।
ईक्षक इंदौरी: इंदौर के पर्यटक स्थल। (लेखन जारी है।)
अंग्रेजी में:
Love Thy Numbers : गणित में रुचि रखने वालों के लिए।
Epeolatry: अंग्रेजी भाषा में रुचि रखने वालों के लिए।
CAT-a-LOG: CAT-IIM कोचिंग।छात्र और पालक सभी पढ़ें।
Corruption in Oil Companies: HPCL के बारे में जहां 1984 से 2007 तक काम किया।
🚂_____🚂_____🚂____🚂____🚂_____🚂___🚂
पुनश्च: उपरोक्त गाने की धुन पर आधारित, पाखंड के विरोध में एक फिल्मी पैरोडी भी बनी थी फिल्म रेलवे प्लेटफॉर्म (1955) में। संगीत मदन मोहन का है और गाया है मोहम्मद रफी ने।
आज ऐसी पैरोडी सहजता से न तो बनाई जा सकती हैं और न ही गाई जा सकती हैं।