है अपना दिल तो आवारा।
गाना: है अपना दिल तो आवारा।
फिल्म:
सोलहवां साल (1958)।
गायक: हेमंत कुमार।
हीरो: देव आनंद।
हीरोईन: वहीदा रहमान।
गीतकार: मजरूह सुल्तानपुरी।
संगीतकार:एसडी बर्मन।
निर्देशक: राज खोसला।
परदे पर: देव आनंद, वहीदा रहमान, सुंदर, जगदेव और बंबई की ऐतिहासिक लोकल ट्रेन। (यह गीत 1958 के बिनाका गीतमाला फाइनल में पहले स्थान पर रहा था।)
जब भी रेल गीतों की बात होती है तो ये गीत लगभग सभी संगीत प्रेमियों और रेल प्रेमियों के जेहन में आ ही जाता है। अधिकतर दोस्त इस गाने और 'मेरे सपनों की रानी' का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। तो आज इस गाने का नंबर आ ही गया है, 40 रेल गीतों के लिखे जाने के बाद! अब आप ही सोचिए 'मेरे सपनों की रानी' का नंबर कब आएगा! (लगभग 85 रेल गीतों के बाद!)
इस गीत और संगीत की बात ही कुछ और है! इसके लिए सब्र करना तो बनता था। एक से बढ़कर एक महारथियों की टीम ने मिलकर इस अमर गीत की रचना की है। ज़रा इस टीम के नामों पर गौर फरमाएं। सभी अपने-अपने फन के माहिर और सभी कलाकारों पर भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किए हैं। सिर्फ वहीदा रहमान को छोड़कर। (भारत सरकार मरणोपरांत ही किसी भी हस्ती पर डाक टिकट जारी करती है।)
इस टीम में आप बंबई की लोकल ट्रेन * के योगदान को बिलकुल नहीं भूल सकते हैं। याद रहे, बम्बई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क दुनिया का सबसे व्यस्त और एशिया का सबसे पुराना नेटवर्क है।
ये गीत आज तक की सभी पीढ़ियों में लोकप्रिय रहा है। इसे सभी वर्गों के संगीत प्रेमियों ने पसंद किया। व्हाट्सएप की भाषा में बोलें तो ये एक 'कालजयी गीत' है! टपोरी, भिखारी, मनचले, गंभीर प्रेमी, संगीत प्रेमी, रेल प्रेमी सभी इस गाने को बंबई की लोकल या अन्य ट्रेनों में, या ट्रेन के बाहर भी, जरूर गाते या गुनगुनाते हैं।
हमने भी जवानी में रेल यात्राओं के दौरान इस गाने को सुंदर लड़कियों को देखने के बाद मन ही मन में खूब गाया है! खुल के इसलिए नहीं गाया क्योंकि न तो शकल थी और न ही सुर और ताल। अकल थी, इसलिए मुंह नहीं खोलते थे! बहुत छोरों को छोरियों के सामने ऐसे-वैसे गाने पर पिटते देखा है, भिया!
सबसे पहले मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस चुलबुले गाने के बोल पढ़ लीजिए: (
सुखी वर्शन)
है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आयेगा।
हसीनों ने बुलाया, गले से भी लगाया
बहुत समझाया, यही न समझा।
बहुत भोला है बेचारा, न जाने किस पे आयेगा
है अपना दिल तो आवारा ...।
अजब है दीवाना, न घर ना ठिकाना
ज़मीं से बेगाना, फलक से जुदा
ये एक टूटा हुआ तारा, न जाने किस पे आयेगा
है अपना दिल तो आवारा ...।
ज़माना देखा सारा, है सब का सहारा
ये दिल ही हमारा, हुआ न किसी का
सफ़र में है ये बंजारा, न जाने किस पे आयेगा
है अपना दिल तो आवारा ...।
हुआ जो कभी राज़ी, तो मिला नहीं काज़ी
जहाँ पे लगी बाज़ी, वहीं पे हारा
ज़माने भर का नाकारा, न जाने किस पे आयेगा
है अपना दिल तो आवारा ...।
है अपना दिल तो आवारा
न जाने किस पे आएगा ...
गाने के बोल: (दुखी वर्शन )
है अपना दिल तो आवारा
ना जाने किस पे आएगा
है अपना दिल तो आवारा
ना जाने किस पे आएगा
रुकेगा ना रुका है,
ना जाने धुन क्या है
कभी ये रास्ता है कभी वो रास्ता
रुकेगा ना रुका है,
ना जाने धुन क्या है
कभी ये रास्ता है कभी वो रास्ता
फिर है डर-ब-डर मारा,
ना जाने किस पे आएगा,
अपना दिल तो आवारा
ना जाने किस पे आएगा
किसी से ये मिला था बताए कोई क्या था
बेदारी का समा था कि वो सपना
किसी से ये मिला था बताए कोई क्या था
बेदारी का समा था कि वो सपना
खुद अपने दर्द से हारा
ना जाने किस पे आएगा
है अपना दिल तो आवारा
ना जाने किस पे आएगा
है अपना दिल तो आवारा
ना जाने किस पे आएगा।
मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत के दो भाग हैं: एक सुखी संस्करण और दूसरा दुखी संस्करण। सुखी वर्शन के शब्द बहुत आसान और जल्दी से दिलो दिमाग में उतरकर कर छा जाने वाले हैं।
( एस डी बर्मन, हेमन्त कुमार और राज खोसला पर जारी किए गए डाक टिकट हम आपको पहले ही दिखा चुके हैं।)
पहले गाने की कहानी समझ लीजिए। वहीदा रहमान जगदेव ( विलेन) से शादी करने की उम्मीद में उसके साथ घर से भाग कर लोकल ट्रेन में बैठी हैं। उन्हें पता नहीं है कि जगदेव उनका कीमती हार लूटकर चकमा देने के लिए तैयार है। देव आनंद अपने साथी और कॉमेडियन सुंदर के साथ उसी डिब्बे में चढ़ जाते हैं। डिब्बा शायद फर्स्ट क्लास का है। इसका इंटीरियर बहुत खूबसूरत है और आज के फर्स्ट क्लास से काफी अलग है।
देव आनंद वहीदा को देखकर गाना गाना शुरू कर देते हैं और सहनायक सुंदर बजाते हैं माउथ ऑर्गन: “है अपना दिल तो आवारा ना जाने किस पे आएगा”। वहीदा और जगदेव की शर्मिंदगी, बेबसी साफ देखी जा सकती है और दोनों गाना खतम होते-होते अगले स्टेशन पर उतर जाते हैं। फिल्म में सस्पेंस है। कहानी नहीं बताई जाएगी! खुजली है और टाइम है तो देख लीजिए ये फिल्म: सोलहवां साल।
इस गाने में माउथ ऑर्गन राहुल देव बर्मन ने किशोरावस्था में बजाया था और इस फिल्म में वो सचिन देव बर्मन के सहायक संगीतकार भी थे। आज भी जब कोई माउथ ऑर्गन बजाना सीखना चाहता है तो संगीत शिक्षक सबसे पहले इसी गाने को सिखाते हैं और छात्रों से बजवाते भी हैं।
फिल्म सोलहवां साल के गाने सुनने के लिए आप इसी लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। और अगर आप सारे गाने अलग-अलग सुनना चाहते हैं तो नीचे अलग से भी लिंक दिए हैं:
देखो मोहे लगा सोलवा साल । मोहम्मद रफी, आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा। इसी गाने से फिल्म का शीर्षक है ।(शीला वाज़ डांसर के रूप में हैं।)
कहते हैं कि सोलहवां साल अंग्रेजी फिल्म 'It Happened One Night (1934)' पर आधारित है। भले ही दोनों फिल्मों के कथानक में समानता हो, दोनों फिल्में में काफी असमानताएं भी हैं। खासकर के संगीत और गाने! सोलहवां साल नकल तो नहीं कहलाई जा सकती है, लेकिन अंग्रेजी फिल्म से प्रेरित जरूर है।
इस 1934 में बनी फिल्म It Happened One Night का सवा मिनट का बेहतरीन ट्रेलर देखना चाहें तो यहां क्लिक करें। इस फिल्म में ट्रेन के सीन बहुत मनमोहक और सुंदर हैं। हीरोइन Claudette Colbert द्वारा नग्न टांगें दिखाकर लिफ्ट लेने की प्राचीन कला को भी आप इस फिल्म के ट्रेलर में देख सकते हैं। पुरातन विधा है! जल्दी लुप्त नहीं होने वाली!
और न ही लुप्त होने वाली हैं रेल, संगीत और रेलसंगीत की यादें और किस्सागोई!
पंकज खन्ना
9424810575
मेरे कुछ अन्य ब्लॉग:
हिन्दी में:
तवा संगीत : ग्रामोफोन का संगीत और कुछ किस्सागोई।
अंग्रेजी में:
Epeolatry: अंग्रेजी भाषा में रुचि रखने वालों के लिए।
CAT-a-LOG: CAT-IIM कोचिंग।छात्र और पालक सभी पढ़ें।
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*भारत में पहली यात्री रेलगाड़ी 16 अप्रैल, 1853 को बोरी बंदर (बाद में सन 1877 ये स्टेशन कहलाया विक्टोरिया टर्मिनस। अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) से ठाणे तक चली थी। ये भारत की पहली पैसेंजर ट्रेन तो थी ही और एक प्रकार से बॉम्बे की भी पहली लोकल ट्रेन थी।
यात्रियों के लिए बनी 14 कोच वाली यह रेलगाड़ी भारत की पहली रेल कंपनी Great Indian Peninsula Railway (GIPR) द्वारा संचालित की गई थी। इस 34 किलोमीटर की पहली यात्रा पूरी करने में ट्रेन ने 57 मिनट का समय लिया था जिसमें ट्रेन के पानी के टैंक को फिर से भरने के लिए सायन में रुकना भी शामिल था।
(GIPR के इस लोगो के शब्द पढ़ें : arte -non-ense. ये एक Latin Phrase है जिसका मतलब होता है: By Art and not by Sword. तलवार और बंदूक की ताकत से आधी दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेजों की इस रेलवे कंपनी का लिखा ये उद्देश्य या कहें उपदेश तो बहुत अच्छा है...!)
बंबई में आज के स्वरूप वाली लोकल ट्रेन की पहली ईएमयू सेवा 1925 में सेंट्रल लाइन पर और 1928 में वेस्टर्न लाइन पर शुरू की गई थी। लोकल ट्रेनें मुंबई के निवासियों की जीवन रेखा हैं। पिछले 99 सालों से लोग मुंबई लोकल में यात्रा कर रहे हैं।
मुंबई की लोकल ट्रेन की कहानी इस
Documentry में देख और सुन सकते हैं। ये बता रही है कि यह शहर कैसे बदल गया है और इसने लोगों और विशेष रूप से स्थानीय लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित किया है। यह उसके आस-पास के लोगों, उनकी आकांक्षाओं और मुंबईकर के जीवन के साथ समानताएं खींचने के प्रयासों के बारे में भी बात करती है।
भारतीय रेल खुद पर फिल्माए गए गानों की कहानी भी सुनाएगी! थोड़ा इंतजार करें:)