(2) चले पवन की चाल (1941).....( फूल न हो पामाल)


                             चले पवन की चाल

इसे कविवर प्रदीप ने लिखा है। बाकी सारे रोल (अभिनेता, गायक और संगीतकार) निभाए हैं दादा साहेब फालके अवार्ड से सम्मानित पद्मश्री पंकज मलिक ने। और फिल्म वही है पिछले सप्ताह वाली: डॉक्टर (1941)।




ये गाना इसी फिल्म के पहले वाले गाने 'आई बहार' से काफी अलग है। पहले गाने में मौज मस्ती थी। इस गाने में काफी गंभीरता है जो उच्च कोटि के गीत-संगीत में कहीं खो जाती है।

पहले गाने में पंकज मलिक रेल के अंदर थे और बैलगाड़ी आदि बाहर। इस गाने में पंकज मलिक घोड़ा-गाड़ी को  छोटी लाइन ( Narrow Gauge) की रेल पटरी के समानांतर दौड़ा रहे हैं। पीछे से पुराने स्टीम इंजिन वाली रेलगाड़ी उन्हें ओवरटेक करती है। ( इंजिन या डब्बों पर लिखे शब्द/नम्बर ठीक से पढ़ते नहीं बन रहे हैं। फिर भी पटरियों और डब्बों को देखकर ऐसा लगता है कि ये ट्रेन और पटरी शायद दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे* की हैं।)

फिल्म में इस गाने के पहुंचने तक  पंकज मलिक की शादी हो चुकी है। वो सेवारत डॉक्टर बन चुके हैं। गर्भवती पत्नी और  अन्य मरीजों की सेवा के बीच की मार्मिक कहानी  है। (आप  फिल्म डॉक्टर   यहीं से देख सकते हैं।)

अभी हम सिर्फ गाने पर ही ध्यान देते हैं। ये हैं गाने के बोल:

चले पवन की चाल, जग में चले पवन की चाल।
यही चाल है जग सेवा का यही जीवन सुखपाल।
हो चले पवन की चाल ...।

इस नगरी की डगर-डगर में, लाखों हैं जंजाल।
सख़्ती नरमी सर्दी गर्मी,एक साँचे में ढाल।
हो चले पवन की चाल, जग में ...।

दुःख का नाश हो सुख का पालन, दोनों बोझ सम्भाल।
चुभते काँटे पिस पिस जाए, फूल न हो पामाल।
चले पवन की चाल, जग में ...।

कट न सके यह लम्बा रस्ता, कटे हज़ारों साल।
जहाँ पहुँचने पर दम टूटे, है वही काल अकाल।
चले पवन की चाल, जग में ...।

( डगर  : मार्ग या तंग रास्ता।
जंजाल :झंझट, उलझन।
पामाल :पैरों से रौंदा या कुचला हुआ, पाँव के नीचे मसला हुआ,  पदध्वस्त , अपमानित।)

गाने में जिंदगी की रफ्तार, कठिनाइयों, डॉक्टर की सेवा , व्यथा और मनःस्थिति के बारे में बताया गया  है। ये गीत सिर्फ डॉक्टरों की ही नहीं अन्य सभी लोगों की समस्याओं को भी अच्छे से समझाता है।

सच में एक महान दार्शनिक गीत है ये। समझ में आता है कि उस जमाने में भी दुनिया पवन की गति से ही चलती थी। तब भी डगर-डगर पर लाखों जंजाल होते थे। कितनी खूबसूरती से कवि प्रदीप ने ये गीत लिख दिया है! और कितनी मीठी आवाज और संगीत में गवैए पंकज मलिक ने ये बात गा कर कह दी है: सख़्ती-नरमी, सर्दी-गर्मी,एक साँचे में ढाल! गीता में भी तो यही कुछ लिखा है दूसरे शब्दों में! कवि प्रदीप ने गीत में ही गीता लिख दी है।

आगे के बोल हैं: चुभते काँटे पिस-पिस जाए, फूल न हो पामाल। इसका आसान मतलब ये है : आप कितने भी कष्ट झेल लें, लेकिन दूसरों का नुकसान न हो। इस फिल्म में और इस गाने में फूल का मतलब नवजात शिशु से है। डॉक्टर का यह गाना कमाल की बात है: फूल न हो पामाल!  🙏

 कर्तव्य निष्ठ डॉक्टर जल्दी से अपने गंतव्य स्थल पर पहुंचना चाहते हैं और गाते हैं : कट न सके यह लम्बा रस्ता, कटे हज़ारों साल!  हम सब कभी न कभी इस दुविधा से गुजरते हैं और इनके अहसास को अच्छे से समझ सकते हैं।

ये गीत कई मायनों में अग्रदूत, अग्रणी या पायोनियर रहा है। रेलवे की पटरी और रेल के साथ किसी घोड़ागाड़ी या वाहन के चलने का ये पहला गीत है। ( इससे प्रेरणा लेकर बाद में कई रेल गीत आए जिन सबका वर्णन आनेवाले समय में किया जाएगा। धैर्य रखें! आपके वाले गानों का भी नंबर आएगा क्रमानुसार। अभी तो सन 1941 में ही अटके हुए हैं:)

डॉक्टरों पर फिल्माया गया ये पहला गाना तो नहीं है लेकिन डॉक्टरों पर फिल्माये गए सर्वश्रेष्ठ गानों में से एक जरूर है।


इस गाने का एक स्क्रीन शॉट थोड़ा सा एडिट करके ऊपर लगाया है। घोड़ा-गाड़ी को ध्यान से देखें तो डॉक्टर साहब के हाथ में कविका (लगाम) दिखाई देगी। डॉक्टरों वाला पुराना बैग और उस पर रखा  आला** (Stethoscope, परिश्रावक) भी पास में पड़ा हुआ दिखाई देगा। वही बैग जिसे डॉक्टर के आगमन पर मरीज के रिश्तेदार हाथ में बहुत आदर भाव से ले लेते थे। अब कहां वो डाक्टरी, उनके वो प्यारे से लटके-झटके, बैग, Swag, या डॉक्टरों का बच्चों के छोटे से बुखार पर ही घर आ धमकना और फिर  डांट-डपट और स्नेह के साथ इलाज करना। दूसरी ओर अब कहां वो डॉक्टरों पर जान छिड़कने वाले मरीज और मरीजों के परिजन!

गाने पर लौटते हैं ! क्या अद्भुत समा है! सब कुछ आला** दर्जे का! घुमावदार पटरी, डायनेमो और बड़ी लाइट वाली घोड़ा-गाड़ी, चालीस के दशक के देशवासी, 1941 के भी पहले के कई दशकों पुरानी  स्टीम इंजन वाली ट्रेन सड़क के बिल्कुल समानांतर दौड़ती हुई, बहुत पतली खाली-खाली सुनसान  सड़क। जंगल-गांव-झोपड़ियां-टापरियां-खपरैल-खेत-खलिहान-बुढा किसान-पुराना परिधान। पूरा चलता फिरता म्यूजियम है ये गाना तो! 

ऊपर से घोड़ों की सुरमई टाप ( Horse Trot) का सर पर चढ़कर छाने वाला संगीत और एक कर्तव्य परायण डॉक्टर की मनोदशा और कविवर प्रदीप के बोल। बोल! और इससे ज्यादा क्या मांगता है?

जरा रुक के धीरे-धीरे दिल और दिमाग लगाकर अदब से एक बार और  देखें और सुनें ये गाना! 🙏

अब अगर आप  पंकज  मलिक के इसी गाने की लाइव रिकॉर्डिंग भी सुनना चाहते हैं तो नीचे लिखें लिंक्स क्लिक करे:


इस गाने की गंभीरता को घोड़ों की टाप से थोड़ा सा दबाया गया है। शब्दों पर ज्यादा ध्यान ना दें तो ये गीत भी घोड़ों की टाप के संगीत के कारण मौज-मस्ती का ही प्रतीत होता है।

(हिंदी फिल्मों का ये पहला 'घोड़ा छाप' गाना है। घोड़ों की टप-टप, टाप-टाप या Horse Trot पर सबसे पहला गाना बनाने का श्रेय पंकज मलिक को ही जाता है। बाद में इस विधा पर ओ पी नैय्यर ने महारत हासिल किया और एक से बड़कर एक बेहतरीन गाने दिए। घोड़ा छाप गानों के बारे में और जानने के लिए तवा संगीत के आलेख -ताडोबा और घोड़ा छाप गाने- को पढ़ सकते हैं।)

सभी डॉक्टर्स, संगीत प्रेमियों और रेल प्रेमियों को समर्पित है ये गीत: चले पवन की चाल.....फूल न हो पामाल!  🙏


पंकज खन्ना
9424810575

मेरे कुछ अन्य ब्लॉग:

हिन्दी में:
तवा संगीत : ग्रामोफोन का संगीत और कुछ किस्सागोई।
ईक्षक इंदौरी: इंदौर के पर्यटक स्थल। (लेखन जारी है।)

अंग्रेजी में:
Love Thy Numbers : गणित में रुचि रखने वालों के लिए।
Epeolatry: अंग्रेजी भाषा में रुचि रखने वालों के लिए।
CAT-a-LOG: CAT-IIM कोचिंग।छात्र और पालक सभी पढ़ें।
Corruption in Oil Companies: HPCL के बारे में जहां 1984 से 2007 तक काम किया।


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*दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे

देश में यूं तो और भी पहाड़ी रैलें हैं लेकिन दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे (DHR) बाकी रेलों  से ज्यादा प्रसिद्ध है। शायद एक कारण तो ये है कि इस दार्जिलिंग रूट पर बहुत सारे फिल्मी गाने फिल्माए गए हैं।

DHR की एक बड़ी  विशेषता  है इसका कई किलोमीटर तक सड़क के काफी नजदीक समानांतर चलना। सड़क से DHR को देखें या  DHR से सड़क सब कुछ बहुत सुंदर दिखाई देता है, चारों ओर!

संभवत: सन 1941 का ऊपर वाला गाना चले पवन की चाल सबसे पहला हिंदी फिल्मी गाना है जिसे दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे रूट के एक  मैदानी हिस्से पर फिल्माया गया था। आने वाले हफ्तों में क्रमानुसार DHR  पर बने बाकी सभी गाने भी सुनेंगे जो बाद में बने और अधिक  प्रसिद्ध भी हुऐ।

रेल संगीत की बात करें और DHR की बात ना हो!? असंभव! 
DHR की बात अभी तो शुरू ही हुई है। बहुत सारी बातें करनी हैं। होले-होले, झूमते-झूमते, बलखाते, सीटी बजाते, पहाड़ियों, वादियों में विचरती इस हसीना  DHR को 'भंगार रस' और श्रृंगार रस के साथ आने वाले समय में और अधिक समझेंगे! 

आप तो जानते ही हैं कि 'भंगार रस' की कोई कमी नहीं है तवा संगीत और रेल संगीत में:)

**'आला' एक 'आला' दर्जे का शब्द है। हिन्दी में इसके कई अर्थ होते हैं जैसे दीवार में बनाई गई जगह (ताक, Niche) जिसमें मूर्तीयां या कुछ अन्य सामान रखा जा सके। कुम्हार का आँवाँ ( मिट्टी के बर्तन पकाने का एक गड्ढा) भी आला कहलाता है।  उर्दू में आला मतलब उत्कृष्ट होता है। उर्दू में ही आला का मतलब गीला या नम भी होता है। मराठी में आला  मतलब आ गया जैसे गोविंदा आला रे।

कई प्रकार के औजारों को भी आला कहा जाता है। Stethoscope को भी आला कहते हैं । अब ये शब्द चलन में नहीं है। लेकिन हमारे बचपन में  बड़े-बुढ़े Stethoscope को आला ही कहते थे। खास करके सरकारी अस्पतालों में तो सभी इसे आला ही कहते थे।

यमक अलंकार का उपयोग करके  'आला' शब्द से कुछ वाक्य तो बना ही सकते हैं जैसे: आला दर्जे का डॉक्टर आला (🩺) लेकर आला (आया) और आला (🩺) को आला (ताक) में रखा।  



 

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